Kar Naino Deedar Mahal Mein Pyara Hai - कर नैनों दीदार महल में प्यारा है
Kabir Sahib (circa 1440–1518) was a revered 15th-century Indian mystic poet and saint, whose teachings form a bridge between Hinduism and Islam, while transcending both. Born in Varanasi, he is regarded as one of the greatest spiritual masters and social reformers in Indian history.
Kabir’s philosophy centered around devotion to a formless God (Nirguna Brahma), inner realization, and the rejection of meaningless rituals and caste divisions. His verses — composed in a simple yet deeply profound style — continue to be sung, quoted, and meditated upon across traditions, especially within Kabir Panth, the Sant Mat, and the Radha Soami faiths.
Kar Naino Deedar Mahal Mein Pyara Hai
"Kar Naino Deedar Mahal Mein Pyara Hai" is one of Kabir Sahib’s most soul-stirring compositions. In this divine verse, Kabir urges the seeker to open the inner eyes (naino) to behold the Beloved (Pyara), who resides not outside, but within the palace of the body (mahal).
This shabad (hymn) is an invitation to meditation, introspection, and divine union. It beautifully encapsulates Kabir's mystic insight:
"The truth is within you. See with the eye of the soul, and you shall find the Beloved waiting in silence."
कर नैनों दीदार महलमें प्यारा है ।।टेक।।
काम क्रोध मद लोभ बिसारो, शील सँतोष क्षमा सत धारो।
मद मांस मिथ्या तजि डारो, हो ज्ञान घोडै असवार, भरम से न्यारा है।1।
धोती नेती बस्ती पाओ, आसन पदम जुगत से लाओ।
कुम्भक कर रेचक करवाओ, पहले मूल सुधार कारज हो सारा है।2।
मूल कँवल दल चतूर बखानो, किलियम जाप लाल रंग मानो।
देव गनेश तहँ रोपा थानो, रिद्धि सिद्धि चँवर ढुलारा है।3।
स्वाद चक्र षटदल विस्तारो, ब्रह्म सावित्री रूप निहारो।
उलटि नागिनी का सिर मारो, तहाँ शब्द ओंकारा है।।4।।
नाभी अष्ट कमल दल साजा, सेत सिंहासन बिष्णु बिराजा।
हरियम् जाप तासु मुख गाजा, लछमी शिव आधारा है।।5।।
द्वादश कमल हृदये के माहीं, जंग गौर शिव ध्यान लगाई।
सोहं शब्द तहाँ धुन छाई, गन करै जैजैकारा है।।6।।
षोड्श कमल कंठ के माहीं, तेही मध बसे अविद्या बाई।
हरि हर ब्रह्म चँवर ढुराई, जहँ श्रीयम् नाम उचारा है।।7।।
तापर कंज कमल है भाई, बग भौंरा दुइ रूप लखाई।
निज मन करत वहाँ ठकुराई, सो नैनन पिछवारा है।।8।।
कमलन भेद किया निर्वारा, यह सब रचना पिंड मँझारा।
सतसँग कर सतगुरु शिर धारा, वह सतनाम उचारा है।।9।।
आँख कान मुख बन्द कराओ, अनहद झिंगा शब्द सुनाओ।
दोनों तिल इक तार मिलाओ, तब देखो गुलजारा है।।10।।
चंद सूर एक घर लाओ, सुषमन सेती ध्यान लगाओ।
तिरबेनीके संधि समाओ, भौर उतर चल पारा है।।11।।
घंटा शंख सुनो धुन दोई, सहस्र कमल दल जगमग होई।
ता मध करता निरखो सोई, बंकनाल धस पारा है।।12।।
डाकिनी शाकनी बहु किलकारे, जम किंकर धर्म दूत हकारे।
सत्तनाम सुन भागे सारें, जब सतगुरु नाम उचारा है।।13।।
गगन मँडल बिच उर्धमुख कुइया, गुरुमुख साधू भर भर पीया।
निगुरो प्यास मरे बिन कीया, जाके हिये अँधियारा है।।14।।
त्रिकुटी महल में विद्या सारा, धनहर गरजे बजे नगारा।
लाल बरन सूरज उजियारा, चतूर दलकमल मंझार शब्द ओंकारा है।15।
साध सोई जिन यह गढ लीनहा, नौ दरवाजे परगट चीन्हा।
दसवाँ खोल जाय जिन दीन्हा, जहाँ कुलुफ रहा मारा है।।16।।
आगे सेत सुन्न है भाई, मानसरोवर पैठि अन्हाई।
हंसन मिलि हंसा होई जाई, मिलै जो अमी अहारा है।।17।।
किंगरी सारंग बजै सितारा, क्षर ब्रह्म सुन्न दरबारा।
द्वादस भानु हंस उँजियारा, षट दल कमल मँझार शब्द ररंकारा है।।18।।
महा सुन्न सिंध बिषमी घाटी, बिन सतगुरु पावै नहिं बाटी।
व्याघर सिहं सरप बहु काटी, तहँ सहज अचिंत पसारा है।।19।।
अष्ट दल कमल पारब्रह्म भाई, दहिने द्वादश अंचित रहाई।
बायें दस दल सहज समाई, यो कमलन निरवारा है।।20।।
पाँच ब्रह्म पांचों अँड बीनो, पाँच ब्रह्म निःअच्छर चीन्हों।
चार मुकाम गुप्त तहँ कीन्हो, जा मध बंदीवान पुरुष दरबारा है।। 21।।
दो पर्वत के संध निहारो, भँवर गुफा तहां संत पुकारो।
हंसा करते केल अपारो, तहाँ गुरन दरबारा है।।22।।
सहस अठासी दीप रचाये, हीरे पन्ने महल जड़ाये।
मुरली बजत अखंड सदा ये, तँह सोहं झनकारा है।।23।।
सोहं हद तजी जब भाई, सत्तलोक की हद पुनि आई।
उठत सुगंध महा अधिकाई, जाको वार न पारा है।।24।।
षोडस भानु हंसको रूपा, बीना सत धुन बजै अनूपा।
हंसा करत चँवर शिर भूपा, सत्त पुरुष दरबारा है।।25।।
कोटिन भानु उदय जो होई, एते ही पुनि चंद्र लखोई।
पुरुष रोम सम एक न होई, ऐसा पुरुष दीदारा है।।26।।
आगे अलख लोक है भाई, अलख पुरुषकी तहँ ठकुराई।
अरबन सूर रोम सम नाहीं, ऐसा अलख निहारा है।।27।।
ता पर अगम महल इक साजा, अगम पुरुष ताहि को राजा।
खरबन सूर रोम इक लाजा, ऐसा अगम अपारा है।।28।।
ता पर अकह लोक है भाई, पुरुष अनामी तहां रहाई।
जो पहुँचा जानेगा वाही, कहन सुनन ते न्यारा है।।29।।
काया भेद किया निरुवारा, यह सब रचना पिंड मँझारा।
माया अविगत जाल पसारा, सो कारीगर भारा है।।30।।
आदि माया कीन्ही चतुराई, झूठी बाजी पिंड दिखाई।
अवगति रचना रची अँड माहीं, ताका प्रतिबिंब डारा है।।31।।
शब्द बिहंगम चाल हमारी, कहैं कबीर सतगुरु दई तारी।
खुले कपाट शब्द झनकारी, पिंड अंड के पार सो देश हमारा है।।32।।